संपादकीय
आप सभी साथियों को जिन्दाबाद। पिछले कुछ महीनों से देश के किसान कठिन दौर से गुजर रहे हैं। भूमि अधिग्रहण संशोधन अध्यादेश आने के साथ एक ओर जमीन छिन जाने का डर तो दूसरी ओर बेमौसम बारिश की वजह से पकी खड़ी रबी की फसल का बरबाद होना। इन दोनो वजहों से देश में किसानों पर चर्चाएं जरुर शुरु हो गयी हैं। 1894 में अंग्रेजों द्वारा बने कानून पर लम्बे विचार विमर्श एवं सहमति के बाद एक जनवरी 2014 से भूमि अधिग्रहण, पुनर्वासन एवं पुनव्र्यस्थापन में पारदर्शिता अधिनियम 2013 लागू हुआ। एक साल पूरा होते-होते भूमि अधिग्रहण संशोधन अध्यादेश आ गया। देश भर में चले तमाम विरोधों के बीच यह अध्यादेश राज्य सभा में पास नहीं हुआ। बावजूद इसके 3 अप्रैल को लोकसभा में दुबारा पेश किया गया। सवाल उठता है कि किसानों की सहमति के बिना क्या उनकी जमीन ली जानी चाहिए? क्या बहुफसली जमीन के अधिग्रहण की सोच को उचित ठहराया जा सकता है? यह कैसा विकास है? और किसके लिए है?
असमय हुयी बारिश, ओलावृष्टि से तबाह हुयी फसल ने किसानों को कहीं का नहीं छोड़ा है। घरों में अनाज लाने की तैयारी कर रहे किसान साथियों के लिए जमीन पर पड़े गेहूँ के पौधों को जलाने की नौबत आ गयी। अपने सपनों, अपनी उम्मीदों को खतम होते देखना किसानों के लिए आसान नहीं है। साथ खड़ा होने का दावा कर रही सरकारें मुआवजे पर बड़ी-बड़ी बाते कर रही हैं। बेहद धीमी गति से मिलने वाली राहत क्या किसानों को सच में राहत पहुँचा पायेगी? पूरे देश में किसानों के मुआवजे को लेकर हाय तौबा मची हुयी है। राजनैतिक दल एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगा रहे हैं, और प्रशासन मरने वाले किसानों की मौत को बीमारी, पारिवारिक कलह या किसी और कारण से हुयी मौत साबित करने में तुले हुए हैं। अखबारों में, टी.वी. पर खूब बहसे हो रही हैं। इन सब के बीच किसान निराश होकर आत्महत्या कर रहे हैं।
किसानों के इस बर्बादी से उभरी चर्चाओं के बाद क्या सच में उनके भले के लिए कुछ हो पायेगा? हमारे लिए नीतियां बनाने वाले हमारे जन प्रतिनिधि क्या सच में कुछ ऐसी नीतियां बना पायेंगे जिससे किसान साथी इस कदर निराश नहीं होंगे? क्या हमारे नीति नियोक्ता भूमि अधिग्रहण संशोधन पर फिर से विचार कर पायेंगे? क्या फसल नुकसान पर मिलने वाले मुआवजे का वितरण सही से हो पायेगा? बटाई पर खेती करने वाले किसानों को कहाँ से मुआवजा मिलेगा? ठेके पर खेती करने वाले किसान पहले से ही नकद देकर खेत लेते हैं, उनके नुकसान की भरपाई कहाँ से होगी? इस सच से कब तक इन्कार किया जायेगा कि भूमिधर कोई होता है और असल में खेती कोई और करता है? क्या खेतों के मालिक किसान अपने हिस्से के मुआवजे से खेती करने वाले किसानों को कुछ देंगे? अगले साल गेहूँ की बुआई के लिए बीज कहाँ से मिलेगा? दिल्ली-लखनऊ से होने वाली घोषणाओं का क्या जमीन पर क्रियान्वयन हो पायेगा? क्या सच में लेखपाल गाँव में पहुँच पायेंगे? क्या गाँवों में ईमानदारी और संवेदनशीलता के साथ सर्वे हो पायेगा? हमें याद रखना होगा कि यह मुआवजा हमारी फसलों की कीमत नहीं है, यह मात्र मरहम है और मरहम अगर समय पर नहीं मिला तो उसका क्या मतलब रह जाता है?
इन सबके बावजूद हम किसान साथियों को यह भी सोचना होगा कि निराश होना हमारी समस्याओं का हल नहीं है। जान है तो जहान है। हमें सरकारों से लड़कर अपने लिए जीवन के रास्ते बनाने होंगे। साथ ही हमें अपने खेती के तौर-तरीकों पर भी सोचना होगा। जमीन से फसल उगाना एक बात है लेकिन रासायनिक खाद और कीटनाशकों के बलबूते जमीन का बेइंतहा दोहन हमें कहाँ ले जा रहा है?
हम सब जानते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से बदलता पर्यावरण हमारी खेती को प्रभावित कर रहा है। जैसा कि अभी से कहा जा रहा है कि इस साल अलनीनो के प्रभाव की वजह से मानसून प्रभावित होगा। ऐसे में अगर हम धान या गन्ना अधिक मात्रा में लगा रहे हैं तो निश्चित ही सिंचाई अधिक करनी होगी। नतीजा यह होगा कि हमारी लागत और अधिक बढ़ेगी। कुल बात यह है कि हमें खेती के आधुनिक तरीको पर विचार करना ही होगा। कुछ पुराने और कुछ नये तरीको को साथ लेकर कुछ ऐसे रास्ते तलाशने होंगे जो खेती को घाटे का सौदा बनने की ओर नहीं ले जाये।
संगतिन किसान मज़दूर संगठन से जुड़े हम किसान साथी एक दूसरे को हिम्मत देते हुए संघर्ष की इस यात्रा में लगातार चल रहे हैं। संगठन के साथियों में 90 प्रतिशत साथी मज़दूर किसान है। खेती करना किसानों के लिए लगातार घाटे का सौदा बनता जा रहा है। ऐसे में हम क्या करें जिससे मज़दूर किसानों के टूटते जमीनी रिश्तों को बचाया जा सके। अपनी खेती को हम और बेहतर कैसे बनाये? ताकि हमारे जमीन की गुणवत्ता और हमारा स्वास्थ्य दोनो ही बने रहें।
लागत और पोषण को देखते हुए मोटा अनाज हमारे लिए एक विकल्प हो सकता है। लेकिन इसे उगाने की बात के साथ ही यह सवाल सामने आता है कि इसको कूटेगा कौन? अब दही-मट्ठा कहाँ है? बिना दही-मट्ठे के यह कैसे खाया जायेगा? इन सवालों के साथ संगठन के 12 साथी दक्षिण की यात्रा पर गये। हम उस क्षेत्र में गये जहाँ मोटा अनाज उगाया और खाया जा रहा है। हम यह समझ पाये कि मोटा अनाज से खेती की लागत कम होगी और इससे भी अलग-अलग तरह के पकवान बनाकर ठीक उसी तरह खाया जा सकता है जैसे चावल और गेहूँ के अलग-अलग पकवान खाये जाते हैं। हम छोटे मजदूर किसानों को यह करना ही होगा क्योंकि बढ़ती महँगाई एवं अन्य कारणों से हमारे भोजन में पौष्टिकता की लगातार कमी हो रही है। मोटा अनाज उगाने और खाने से इसका बेहतर असर हमारे खेतो से लेकर हमारी सेहत तक होगा।
यह अंक दक्षिण यात्रा पर गये साथियों के अनुभवों और मोटे अनाज पर किये जा रहे प्रयासों को आप तक पहुँचाने की एक कोशिश है। उम्मीद है आपको पसंद आयेगा।
सुरबाला वैश्य
दक्षिण यात्रा – एक रपट
संगठन की मजबूती
किसी भी संगठन को मजबूती से खड़ा रखने के लिये संघर्ष के साथ बराबर नये रास्तों के निर्माण और उन पर चलने की आवश्यकता होती है। गाँवों में मजदूर और किसान साथियों की जिन्दगी बेहतर हो पाये, इसे ध्यान में रखते हुए संगतिन किसान मजदूर संगठन कुछ न कुछ प्रयास करता रहता है। सन् 2005 में इस्लामनगर रजबहे में पानी लाने के मुद्दे से संगठन की शुरुआत हुई थी क्योंकि छोटे किसानों के लिए बोरिंग से सिंचाई महंगा पड़ता है। मजदूर किसानों को अपने खेतो के लिए समय पर महंगे बीज लेना, खाद लेना, पानी लगाना बहुत महंगा पड़ रहा है। कभी सूखा, कभी बारिश की वजह से कुतुबनगर, पिसावाँ में अक्सर खरीफ की फसल जैसे धान, मूंगफली, गन्ना आदि बरबाद हो जाती है। कुल यह कि फसलों की लागत अधिक और पैदावार कम होती जा रही है।
मोटा अनाज और हम
इस बात को सोचते, समझते हुये मोटे अनाज उगाने की बात उठी। पहले सिर्फ 5 साथियों ने सावाँ बोया। आते-जाते लोगों ने ध्यान दिया और अधिकाँश लोगों ने कहा – अरे यह तो सावाँ है, यह पहले बहुत होता था। इससे एक माहौल बना। 2013-14 में 125 साथियो ने मोटा अनाज बोने का बीड़ा उठाया। बीज उपलब्ध कराया संगठन के सहयोगी साथी, बैंगलूर निवासी सुधा और द्विजी ने। कम जानकारी और मानसिक तैयारी नहीं होने से कुछ किसानो की बुआई बेकार हो गयी। 70 किसानों ने तीन बिश्वा से लेकर एक बीघा जमीन पर उड़द, मूंगफली के साथ सावाँ या काकुन बोया। फसल तैयार हुई। कुल लगभग तीन कुन्तल सावाँ और काकुन निकला।
मिश्रिख और पिसावाँ क्षेत्र के और अधिक किसानों तक यह बात पहुँचे इसलिए कुतुबनगर बाजार में 16 नवम्बर 2014 को किसान मेला का आयोजन हुआ। सावाँ, काकुन और उसके चावल की खरीदारी 1200 रुपये प्रति कुन्तल से हुयी। अपने अनुभव सुनाते हुए किसानों ने बताया कि सावाँ और काकुन बोने के बाद हमने उसे ध्यान से देखा-परखा कि इससे हमारे खेत को क्या मिल रहा है? कई खेतों में केंचुआ नजर आये। हम सब जानते हैं कि केंचुआ होना हमारे खेतों और फसल के लिए लाभदायक है क्योंकि यह खेत में छोटे-छोटे छेद बना लेते हैं जिससे पानी खेत की तह तक जाता है। इससे खेतो में देर तक नमी बनी रहती है और यह हमारे फसल के लिए अच्छा हो़ता है। अधिकांश साथियों ने रासायनिक खाद का प्रयोग नहीं किया और सिंचाई भी एक-दो बार से अधिक नहीं करनी पड़ी जिससे लागत कम आई।
मोटा अनाज का स्वास्थ्य पर अच्छा असर पड़ता है। अब डाक्टर भी षुगर, ब्लड प्रेशर, हृदय रोग के लोगों को मोटा अनाज खाने की सलाह दे रहे हैं। लेकिन मोटा अनाज की बात के साथ एक बात जरुर आती है कि सावाँ कूटेगा कौन? खायेंगे कैसे? दूध-मट्ठा कहाँ है? इसे लेकर सुधा और द्विजी ने दक्षिण में मोटा अनाज उगाने और खाने में प्रयोग करने वाले साथियों से बातचीत की। यह तय हुआ कि कुछ साथियो को जाकर देखना चाहिए कि वहाँ मोटा अनाज को लोग कैसे उगा रहे हैं? कैसे कुटाई कर रहे हैं? कैसे उससे नयी-नयी चीज बनाकर खा रहे हंै? पूरी योजना बनाकर संगतिन किसान मजदूर संगठन से 12 साथी इसको देखने और समझने के लिए दक्षिण यात्रा पर गये।
लखनऊ से अनन्तपुर
दक्षिण या़त्रा के लिए 15 जनवरी की रात हम लोग लखनऊ से रवाना हुये। दोे रात और एक दिन की लम्बी यात्रा हँसते बतियाते कब बीत गयी, पता ही नहीं चला। 17 जनवरी को सुबह 11 बजे अन्नतपुर पहुँचे। अनन्तपुर स्टेषन की सफाई देखकर हम लोग आश्चर्यचकित रह गये। एक साथी बोला यहाँ आबादी कम है इसलिए गन्दगी नहीं दिख रही है। दूसरी साथी बोली यह बात सही है लेकिन इस सफाई के और भी कारण हैं। यह हमारी सरकार, बजट और हमारी मानसिकता पर भी निर्भर करता है। हमे लेने के लिए सुधा स्टेषन पर बाजरे की कड़क रोटी के साथ पहुँच चुकी थी। अनन्तपुर से कदरी के लिए हम लोग बस से चले। भूख लगी थी। बस में बैठ कर हमने कड़क रोटी खाई। मोटा अनाज खाने की शुरुआत हो चुकी थी।
मशीन और महिलाएं
कदरी पहुँचते-पहुँचते शाम होने वाली थी। कारखाना 5 बजे बन्द हो जाता इसलिए हम सब जल्दी से चाय पीकर कारखाने की ओर चल दिए। मोटा अनाज की कुटाई के लिए इतना बड़ा कारखाना हो सकता है इसकी हम साथियों ने कल्पना भी नहीं की थी। एक बड़े से हाॅल में मोटे अनाज को कूटने वाली बड़ी-बड़ी मषीने लगी थी। इन मशीनों से कई तरह के मोटे अनाजो के चावल निकल रहे थे। हर मषीन का अलग-अलग काम था। मोटे अनाज के कंकड़ एवं धूल निकालना, बड़े एवं छोटे दाने अलग करना और फिर चावल वाली मषीन मे कुटाई होना। खास बात यह थी कि यह काम सिर्फ महिलायें ही कर रही थी मषीन चलाने से लेकर पैकिंग तक। बाजरे की कड़क रोटी बनाने का काम भी महिलायें ही कर रही थी।
मण्डवार पल्ली
दूसरे दिन हम सभी मण्डवार पल्ली गाँव गये। उत्तर प्रदेश के गाँव और मण्डवार पल्ली की कोई तुलना ही नहीं थी। वाटर लेबल 800 फुट नीचे है। पानी की कमी से छोटे किसानो के लिये खेती करना बहुत ही कठिन है। वहाँ के साथियों ने बताया कि मोटा अनाज अगर सूखे मंे भी जोत कर डाल दें तो बरिस होने पर बीज उग आयेगा। फसल लाइन में और पर्याप्त दूरी पर बोई जाती है। दो लाइन के बीच बनी नालियों में पानी देते हैं। कम पानी खर्च होता है और जड़ो को फैलने और मजबूत होने का पूरा मौका मिलता है। यानि अगर हम अपने यहाँ लाइन में बुआई करने लगे तो पानी कम लगेगा इससे हमारी लागत कम हो जाएगी। उत्तर प्रदेश में भी पहले लोग नगरा हल से ऐसी ही खेती करते थे, पर आज वह नगरा हल गाँवो से गायब हो चुका है।
गाँव में महिलाओं के सिर पर पल्ला डालने की प्रथा नहीं है। वह बराबर घर और खेती मंे हाथ बँटा रही थी। मण्डवार पल्ली में गाय, भेड़, बकरी का पालन अधिक था। गोबर से बनी बायो गैस लगभग 25 घरों में चल रही थी। बायो गैस से ही लोगो का खाना बन रहा था। घर बहुत बडे़ नहीं थे पर व्यवस्थित थे। जीना बाहर से बने थे जिससे छत एवं घर दोनो को प्रयोग मे ले रहे थे। यहाँ लोगो ने धान की पैदावार एवं लागत और मोटे अनाज की पैदावार एवं लागत के बारे मे बताया। कुछ घरों के लोगों ने मिलकर हम लोगों के लिए सब्जी, दाल, रसम के साथ रागी, मड़ुवा जैसे मोटे अनाज का भोजन पकाया था। मोटा अनाज भी कितना स्वादिष्ट हो सकता है? यह हमें समझ में आ गया है।
ऋषि वैली
मण्डवार पल्ली से हम लोग ऋषि वैली स्कूल गये। वहाँ पर प्रोफेसर संतोष जी मिले जो खेती एवं पषुओ के वैज्ञानिक हैं। उन्होंने बताया कि लाइन में खेती नहीं करने से पौधो को पानी, खाद, धूप, हवा पूरी तरह से नहीं मिल पाती जिससे पौधा कमजोर पड़ जाता है और हमारे फसल की पैदावार कम पड़ जाती है। इसलिए हम सब को किसी भी चीज की खेती करने से पहले लाइन से लाइन और पौधो से पौधो के बीच पर्याप्त दूरी रखनी चाहिए। ऐसी खेती करने से क्या असर पड़ता है? यह दिखाने के लिए वह हमें गन्ने के एक खेत में ले गयें। इस खेत में आठवीं बार का गन्ना था। एक-एक कल्ले में 20-20 गन्ने थे जो चारो तरफ फैले थे। एक बीघे की पैदावार 120 कुन्तल थी। यहाँ से हम वापस कदरी आ गये।
कड़क रोटी और जेठी सावाँ
दूसरे दिन हम दुबारा कारखाना गये और बाजरे की कड़क रोटी बनाना सीखा। यह रोटी 15 दिन तक खराब नहीं होती है। तीन साथी चेना (जेठी सावाँ) जो गर्मियो में उपजाया जा सकता है, उसे देखने गये। पूरा खेत चेना से लहलहा रहा था। पूरी फसल लाइन में बोई हुई थी। मोटे अनाज की खेती को देख कर लगा कि हम छोटे किसानो के लिये यह एक सफल रास्ता हो सकता है क्योंकि हम खेती में अधिक लागत लगाने की स्थिति में नहीं है। हमें वह तरीके अपनाने होंगे जिससे खेती में लगने वाली लागत कम हो ताकि वह हमारे लिए घाटे का सौदा नहीं हो और हमारे शरीर को पोषण भी मिल पाये।
सुत्तूर मेला
कदरी से हम लोग बैंगलूर द्विजी और सुधा जी के घर आये। मैसूर के सुत्तूर जिला के एक मठ में बड़ा कृषि मेला लगा हुआ था। हम सब बैंगलूर से यह मेला देखने गये। यहाँ मोटे अनाज के फसलो के डेमो प्लाट (प्रदर्षनी) बने हुए थे। ज्वार, बाजरा, मक्का, कोदो, काकुन, सावाँ, कपास चेना (जेठी सावाँ), मूंगफली इत्यादि अनेको फसलों के डेमो प्लाट थे। मेले में कहीं बच्चों का खेल था तो कहीं मजबूत बैलों का बाजार भी था। घरेलू चीजों का भी बाजार था। मेले में 5 रु0 के टिकट पर भर पेट खाना था। खाने के बाद लोग पत्तल जगह-जगह रखे कूडे़दान में डाल रहे थें जिससे कहीं गन्दगी नहीं दिख रही थी।
बैंगलौर कृषि विश्वविद्यालय
सुत्तूर मेले से हम बैंगलौर कृषि विश्वविद्यालय गयें। यहा पाँच वैज्ञानिक पिछले 20 वर्षो से मोटे अनाज पर काम कर रहे हैं। हमने मोटे अनाज से जुड़ी अलग-अलग तरह की मशीने देखी। जैसे मड़ुवा के सफेद और लाल दानो को अलग करने वाली मशीन थी। एक मशीन पाँच अलग-अलग अनाजों को चावल बनाकर अलग-अलग निकाल रही थी। इस मशीन में एक बार में ही 60-100 किलो तक अनाज डाल सकते हैं। मूंगफली का छिलका निकालने वाली मशीन भी थी। हमने चेना (जेठी सावाँ) के चावल के आटे से कुरकुरे बनते देखा और पैकेट को मशीन द्वारा सील करते देखा
कदरी से लेकर बैंगलोर कृषि विश्वविद्यालय तक मशीनों को देखकर यह बात हम सभी को अच्छी तरह समझ में आ गयी कि मोटे अनाज की कुटाई की कोई समस्या नहीं होगी। अगर हम सीतापुर में ऐसे ही अनाज उगायेंगे तो यहाँ भी कारखाना लगाया जा सकता है। हम सब यह समझ पाये कि मोटे अनाज में विटामिन, प्रोटीन और फाइबर की मात्रा अधिक होती है और यह हमारे स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है।
आगे की योजना
बैंगलोर वापस आकर हम साथियों ने योजना बनायी कि हम अपने यहाँ मोटे आनाज की खेती कैसे करेगें? कितने लोग करेगें? यह तय हुआ कि दक्षिण यात्रा पर आये सभी साथी कम से कम एक-एक बीघा मोटा अनाज बोयेंगे। प्रत्येक साथी एक और किसान साथी को इसके लिए तैयार करेंगे। मिश्रिख, पिसावाँ मछरेहटा से लगभग 200 किसान साथी, मोटा अनाज बोयें, यह कोशिश होगी।
दक्षिण यात्रा की टोली- कमल, दीनदयाल, बिटोली, लेखराम, रामदेवी, विपिन, मेवालाल, उमेष, रीना, सुनीता, ऋचा।
कारखाना- मोटा अनाज
यह आन्ध्र प्रदेश के कदरी में स्थित मोटा अनाज की कुटाई का कारखाना है। मिश्रिख या पिसावाँ में मोटा अनाज उगाने की बात पर पहला सवाल यही होता है- सावाँ कूटेगा कौन? यह कारखाना इस बड़े सवाल का जवाब है। इस कारखाने में कई मशीने थीं। यह किस तरह काम करती हैं, इसका ब्यौरा दे रहे हैं ताकि साथियों को यह अन्दाजा लग सके कि मोटे अनाजों की कुटाई भी मशीनों द्वारा हो सकती है। इस कारखाना में रोज 8 कुन्तल अनाज की कुटाई और बिक्री होती हैै।
पहली मशीन
यह मोटे अनाज के दानो की सफाई का काम करती है। इसके अलग-अलग हिस्सो से पाँच अलग-अलग चीजे निकल रही थी। (1) कंकड़ (2) धूल (3) मोटे अनाज के साफ दाने (4) छोटे दाने (5) खराब/हल्के दाने।
दूसरी मशीन
पहली मशीन से निकले साफ दानों को लाकर इस दूसरी मशीन में डाला जाता है। यह दानो के ऊपर लगे मजबूत छिलके को तोड़ने का काम करती है।
तीसरी मशीन
छिलका टूटने के बाद दानो को इस मशीन में डाला जाता है। इस मशीन से भी कई अलग-अलग चीजें निकलती हैं। (1) भूसी (2) भूसी के साथ चावल (3) कम भूसी मिला चावल (4) छोटा चावल (5) बड़ा चावल साफ होकर अलग निकलता है।
चैथी और छठवीं मशीन
इस मशीन द्वारा काकुन, कोदो की कुटाई कर चावल निकाला जाता है।
पांचवी मशीन साफ किये चावल के दानो को लाकर इस मशीन में डाला जाता है। इस मशीन का काम है-
(1) साफ और अच्छा चावल एक जगह निकलता है (2) छोटा और बारीक चावल अलग साफ हो कर बाहर आता है। (3) कुटकी (खन्डी/टूटा) चावल अलग हो जाता है।
परिवार हो या कारखाना
अनाज की कुटाई करने वाली फैक्ट्री में महत्वपूर्ण बात यह देखने को मिली कि मशीनोे को चलाने का काम पुरुष नहीं बल्कि महिलायें कर रही थी। अनाज की बोरियां उठाकर मशीन में डालना, चावल के दाने ठीक निकल रहे या नहीं? मशीनों को कब? कैसे? चलाना है, सब महिलाओं द्वारा हो रहा था। मैं मानता हूँ कि महिलाएं किसी भी मामले में कमजोर नहीं होती हैं। मेरा यह एहसास और पक्का हुआ कि महिलायें हर काम कर सकती हैं, परिवार चलाना हो, चाहे कारखाना चलाना हो।
उमेश, नरसिघौली-मिश्रिख
नयी दुनिया
अनन्तपुर स्टेषन पर उतरते ही मुझे चिन्ता हुयी कि आखिर हम यहाँ की भाषा कैसे समझ पायेंगे? एक पल को ख्याल आया कि अगर कहीं खो गये तो? वापसी कैसे होगी? लेकिन दो दिन बीतते-बीतते हम वहाँ के साथियों को कई बाते इशारे से कहने लगे। वह भी हमें कभी हाथ के इशारे से, कभी अपनी बोली, कभी हिन्दी के टूटे शब्दों के साथ अपनी बात समझा देते थे। सही बात है अगर इंसान के मन में दोस्ती हो, एक दूसरे के लिए इज्जत हो तो बोली-बानी समस्या नहीं बनती है। हम किसी न किसी तरीके से अपनी बात एक दूसरे को समझा ही ले जाते हैं।
लेखराम-फखरपुर, पिसावाँ
दंग रह गये
मोटे अनाज के कारखाने में लगभग 22 महिलाएं और दो तीन पुरुष साथी काम कर रहे थें। काम कर रही महिलाओं ने बताया कि उनके यहाँ परदा नहीं होता है। यह बड़ा फरक है, हमारे और वहाँ की महिलाओं में। हम माने या नहीं माने परदा महिलाओं की ताकत को कम कर देता है। हमको पीछे कर देता है। जमाना कहाँ से कहाँ जा रहा है और आज भी गाँव की हम बहुत सारी महिलाएं परदे के अन्दर जकड़ी हैं। अब परदा पहले से कम हो गया है लेकिन अभी बहुत है। हमें परदे की इस जकड़न से बाहर निकलना होगा। हमें यह समझना होगा कि अपने घर, परिवार और समाज की इज्जत परदे से नहीं बल्कि अच्छे करमों से होती है।
बिटोली, मकड़ेरा-पिसावाँ
लेखन एवं संपादन: दक्षिण यात्रा टोली
कमल, दीनदयाल, बिटोली, लेखराम, रामदेवी, विपिन, मेवालाल, उमेश रीना, सुनीता, ऋचा।
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मुद्रक – सीतापुर