नये साल में नया मंथन
‘हमारा सफ़र’ के पाठकों को संगतिन किसान मज़दूर संगठन के सभी साथियों, सहयोगियों, और सह–यात्रियों की तरफ़ से नये साल की दिली मुबारकबाद।
नये साल की हाड़–गलाती ठिठुरन में हम जब इस साल के लिए सपने संजोने बैठते हैं तो जहाँ एक ओर 2018 में दलित–शोषित मज़दूरों और किसानों के हक़ और इन्साफ़ की लड़ाई को आगे बढ़ाने का सपना देखते हैं, तो वहीं पिछले एक–डेढ़ बरस की घटनाओं को याद करके हमारा दिल कलप उठता है। हमें बार–बार एहसास होता है कि सियासी ताक़तों ने अमन और चैन को इस देश के पहले से ही हाशियों पर धकेले गए नागरिकों के जीवन से कितना दूर कर दिया है। ऐसे में हमारा फ़र्ज़ बनता है कि हम इस बात पर लगातार मनन करें कि हम सब मिलकर अपने चिंतन को कैसे और गहरा बनायें ताकि हमारे संघर्ष की धार और पैनी हो सके।
इस तैयारी के बिना, साथियों, अब इस देश और दुनिया में हमारा गुज़ारा नहीं।
सन 2016 के जुलाई माह में गुजरात के ऊना में घटी घटना इस अख़बार को पढ़ने वाले अभी भूले नहीं होंगे। हम उस घटना का ज़िक्र कर रहे हैं जब गोरक्षक होने का दावा करने वाले ज़ुल्मी लठैतों ने चार दलित नौजवानों और एक बुज़ुर्ग पर गो–हत्या और खाल की तस्करी का झूठा आरोप लगाकर उन्हें निर्ममता से पीटा था। इस वारदात के साल–भर बाद 2017 में जहाँ उस ज़ुल्म को याद करके युवा नेता जिग्नेश मेवानी ने देश के युवाओं को नारा दिया — “गाय की पूँछ तुम रखो, हमें हमारी ज़मीन दो,”
वहीं बर्बरता की हद को पार कर देने वाली भयावह घटनाओं ने हम सबको देश में पल रही नफ़रत की राजनीति के ख़ौफ़नाक रंग दिखाये।
अप्रैल 2017 में राजस्थान के अलवर ज़िले में पहलू ख़ान की हत्या, फिर जुलाई माह में हरियाणा में जुनैद ख़ान का ठीक ईद के पहले का मारा जाना, और फिर राजस्थान के राजसमंद में ही अफ़राज़ुल की हैवानियत से हत्या। यही नहीं, अब तो हमारे देश में खुल्लमखुल्ला किसी हत्यारे को नायक बनाने का शर्मनाक चलन भी शुरू हो गया है। पहले गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का महिमामंडन किया गया, फिर पहलू ख़ान को मारने वाले गौआतंकियों को भगत सिंह बताया गया, उसके बाद अफ़राज़ुल की हत्या करने वाले शंभूलाल रेगर को कई लोग हीरो की तरह पेश करने में जुट गये।
कुल मिलकर देश में नफ़रत की राजनीति ने एक ऐसा स्वरूप धर लिया है कि हमारे जैसे संगठन के लिए आज की तारीख़ में सिर्फ रोज़ी–रोटी, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, तथा पेंशन, या फिर सत्ताधारियों और विकास–अधिकारियों द्वारा किये जा रहे छोटे–बड़े घोटालों पर केंद्रित रह पाना संभव ही नहीं है। हमें बेहद चौकन्ना होकर अपने इर्द–गिर्द और अपने पूरे प्रदेश और देश में हो रही वारदातों के मायने समझने पड़ेंगे। हमारी ही आँखों के सामने हमारे इतिहास और भूगोल को तोड़–मरोड़कर हमारे सामने परोसा जा रहा है। इसी के तहत सीतापुर के मिश्रिख ब्लॉक में स्थित कुतुबनगर इंटर कॉलेज का नाम बदलकर परशुराम इंटर कॉलेज कर दिया गया है। ऐसे भी लोग हैं जो गांव, कस्बों, सड़कों, शहरों के नाम बदलकर किसी खास विचारधारा पर आधारित नाम रखना चाहते हैं।
सवाल उठते हैं कि कोई इन लोगों को रोककर यह क्यों नहीं पूछता कि इन सबका हमारे समाज पर क्या असर पड़ रहा है और यह सब किसके हित के लिए हो रहा है? साथ ही, हमें यह भी सोचना होगा कि ऐसे चिंताजनक माहौल में संगठन के साथियों की क्या भूमिका होनी चाहिए?
जब पूरी दुनिया में ऐसी फ़िज़ा आयी हो तो संघर्ष के रंगों को भी और तीखा होने की ज़रूरत है। कुछ इसी तरह की सोच लेकर संगठन के बीस साथी 2018 की शुरुआत में एक ख़ास बैठक के लिए सीतापुर में इकठ्ठा हुए। इस बैठक का केंद्र बिंदु था — एक और मंथन: जाति, धर्म और पहचान की राजनीति। जनवरी 8 और 9 की किटकिटाती ठण्ड में जो गरमागर्म चचाएँ इस समूह में चल निकलीं और देर तक चलती रहीं उनसे साफ़ ज़ाहिर हो गया कि यह नया साल हम सबके लिए अन्याय से सधकर लड़ते रहने, और अपनी लड़ाई के हर पहलू की तहों और गुत्थियों में जाकर उसे बराबर साथ–साथ समझते रहने का साल होना चाहिए।
संगठन की रोज़–मर्राह की लड़ाइयों ने हम सबको 2016 और 2017 में कुछ इस क़दर जकड़ लिया था कि ‘हमारा सफ़र’ के मार्च 2016 के अंक के बाद अब यह नया अंक लगभग दो सालों बाद निकल रहा है। इस अंक में आपके साथ जनवरी की चर्चा के कुछ बिंदु, और उस चर्चा से ही जुड़ते कुछ अन्य तार साझा कर रहे हैं। उम्मीद है कि आप जहाँ भी बैठकर इन शब्दों को पढ़ रहे हैं, वहीं से किसी न किसी रूप में अपने आप को इस लड़ाई से जोड़कर गाँव के सबसे शोषित मज़दूर–किसानों के हक़–हुक़ूक़, मान–सम्मान, तथा सच और इन्साफ़ की लड़ाई के लिए अपना मन ख़ूब पकायेंगे और संघर्ष की डगर पर अपने पग बढ़ाते हुए हम साथ–साथ कुछ नयी रोशनियों के और क़रीब पहुँच सकेंगे।
याद रहे, साथियों, अभी तो यह अंगड़ाई है, आगे बहुत लड़ाई है
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