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Intercropping sugarcane and foxtail millet – Prakash shares his experience

Prakash, a senior SKMS Saathi, lives in Pipri village, Mishrikh block, Sitapur district. Since 2014, he has been trying to cultivate millets with limited success. One year, rain washed away his seeds, while goats wiped out his crop another time. In 2016, his finger millet crop was looking promising, but another villager mistook it for grass and harvested it! Finally, he decided to try intercropping with sugarcane. Here is his story (in Hindi):

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हमारा सफर, 2018

नये साल में नया मंथन

हमारा सफ़र’ के पाठकों को संगतिन किसान मज़दूर संगठन के सभी साथियों, सहयोगियों, और सहयात्रियों की तरफ़ से नये साल की दिली मुबारकबाद।

नये साल की हाड़गलाती ठिठुरन में हम जब इस साल के लिए सपने संजोने बैठते हैं तो जहाँ एक ओर 2018 में दलितशोषित मज़दूरों और किसानों के हक़ और इन्साफ़ की लड़ाई को आगे बढ़ाने का सपना देखते हैं, तो वहीं पिछले एकडेढ़ बरस की घटनाओं को याद करके हमारा दिल कलप उठता है। हमें बारबार एहसास होता है कि सियासी ताक़तों ने अमन और चैन को इस देश के पहले से ही हाशियों पर धकेले गए नागरिकों के जीवन से कितना दूर कर दिया है। ऐसे में हमारा फ़र्ज़ बनता है कि हम इस बात पर लगातार मनन करें कि हम सब मिलकर अपने चिंतन को कैसे और गहरा बनायें ताकि हमारे संघर्ष की धार और पैनी हो सके।

इस तैयारी के बिना, साथियों, अब इस देश और दुनिया में हमारा गुज़ारा नहीं।

सन 2016 के जुलाई माह में गुजरात के ऊना में घटी घटना इस अख़बार को पढ़ने वाले अभी भूले नहीं होंगे। हम उस घटना का ज़िक्र कर रहे हैं जब गोरक्षक होने का दावा करने वाले ज़ुल्मी लठैतों ने चार दलित नौजवानों और एक बुज़ुर्ग पर गोहत्या और खाल की तस्करी का झूठा आरोप लगाकर उन्हें निर्ममता से पीटा था। इस वारदात के सालभर बाद 2017 में जहाँ उस ज़ुल्म को याद करके युवा नेता जिग्नेश मेवानी ने देश के युवाओं को नारा दिया — “गाय की पूँछ तुम रखो, हमें हमारी ज़मीन दो,”

वहीं बर्बरता की हद को पार कर देने वाली भयावह घटनाओं ने हम सबको देश में पल रही नफ़रत की राजनीति के ख़ौफ़नाक रंग दिखाये।

अप्रैल 2017 में राजस्थान के अलवर ज़िले में पहलू ख़ान की हत्या, फिर जुलाई माह में हरियाणा में जुनैद ख़ान का ठीक ईद के पहले का मारा जाना, और फिर राजस्थान के राजसमंद में ही अफ़राज़ुल की हैवानियत से हत्या। यही नहीं, अब तो हमारे देश में खुल्लमखुल्ला किसी हत्यारे को नायक बनाने का शर्मनाक चलन भी शुरू हो गया है। पहले गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का महिमामंडन किया गया, फिर पहलू ख़ान को मारने वाले गौआतंकियों को भगत सिंह बताया गया, उसके बाद अफ़राज़ुल की हत्या करने वाले शंभूलाल रेगर को कई लोग हीरो की तरह पेश करने में जुट गये।

कुल मिलकर देश में नफ़रत की राजनीति ने एक ऐसा स्वरूप धर लिया है कि हमारे जैसे संगठन के लिए आज की तारीख़ में सिर्फ रोज़ीरोटी, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, तथा पेंशन, या फिर सत्ताधारियों और विकासअधिकारियों द्वारा किये जा रहे छोटेबड़े घोटालों पर केंद्रित रह पाना संभव ही नहीं है। हमें बेहद चौकन्ना होकर अपने इर्दगिर्द और अपने पूरे प्रदेश और देश में हो रही वारदातों के मायने समझने पड़ेंगे। हमारी ही आँखों के सामने हमारे इतिहास और भूगोल को तोड़मरोड़कर हमारे सामने परोसा जा रहा है। इसी के तहत सीतापुर के मिश्रिख ब्लॉक में स्थित कुतुबनगर इंटर कॉलेज का नाम बदलकर परशुराम इंटर कॉलेज कर दिया गया है। ऐसे भी लोग हैं जो गांव, कस्बों, सड़कों, शहरों के नाम बदलकर किसी खास विचारधारा पर आधारित नाम रखना चाहते हैं।

सवाल उठते हैं कि कोई इन लोगों को रोककर यह क्यों नहीं पूछता कि इन सबका हमारे समाज पर क्या असर पड़ रहा है और यह सब किसके हित के लिए हो रहा है? साथ ही, हमें यह भी सोचना होगा कि ऐसे चिंताजनक माहौल में संगठन के साथियों की क्या भूमिका होनी चाहिए?

जब पूरी दुनिया में ऐसी फ़िज़ा आयी हो तो संघर्ष के रंगों को भी और तीखा होने की ज़रूरत है। कुछ इसी तरह की सोच लेकर संगठन के बीस साथी 2018 की शुरुआत में एक ख़ास बैठक के लिए सीतापुर में इकठ्ठा हुए। इस बैठक का केंद्र बिंदु था एक और मंथन: जाति, धर्म और पहचान की राजनीति। जनवरी 8 और 9 की किटकिटाती ठण्ड में जो गरमागर्म चचाएँ इस समूह में चल निकलीं और देर तक चलती रहीं उनसे साफ़ ज़ाहिर हो गया कि यह नया साल हम सबके लिए अन्याय से सधकर लड़ते रहने, और अपनी लड़ाई के हर पहलू की तहों और गुत्थियों में जाकर उसे बराबर साथसाथ समझते रहने का साल होना चाहिए।

संगठन की रोज़मर्राह की लड़ाइयों ने हम सबको 2016 और 2017 में कुछ इस क़दर जकड़ लिया था कि ‘हमारा सफ़र’ के मार्च 2016 के अंक के बाद अब यह नया अंक लगभग दो सालों बाद निकल रहा है। इस अंक में आपके साथ जनवरी की चर्चा के कुछ बिंदु, और उस चर्चा से ही जुड़ते कुछ अन्य तार साझा कर रहे हैं। उम्मीद है कि आप जहाँ भी बैठकर इन शब्दों को पढ़ रहे हैं, वहीं से किसी न किसी रूप में अपने आप को इस लड़ाई से जोड़कर गाँव के सबसे शोषित मज़दूरकिसानों के हक़हुक़ूक़, मानसम्मान, तथा सच और इन्साफ़ की लड़ाई के लिए अपना मन ख़ूब पकायेंगे और संघर्ष की डगर पर अपने पग बढ़ाते हुए हम साथसाथ कुछ नयी रोशनियों के और क़रीब पहुँच सकेंगे।

याद रहे, साथियों, अभी तो यह अंगड़ाई है, आगे बहुत लड़ाई है

पूरा अंक पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें: हमारा सफर जनवरी 2018

हमारा सफर, 2019

दो शब्द

वैसे तो ‘हमारा सफ़र’ अख़बार हमेशा संगठन के सामूहिक श्रम से बनता है, लेकिन यह अंक आपके हाथों में पहुंचाते वक़्त हम एक नायाब सुकून महसूस कर रहे हैं। वो इसलिए, कि हमारे इस अंक में पिरोये सारे विचार, कहानियाँ, बातें, और लफ्ज़ अनेक साथियों की साझी सोच और मेहनत से ही नहीं बल्कि उनके आत्मीय अनुभवों और भावनाओं से भी निकले हैं।

संगठन के साथियों की कठिन ज़िन्दगियों में इस तरह साथ-साथ अपने दिल की बातें खखोलकर अख़बार बनाने के लिए वक़्त निकाल पाना इतना आसान नहीं होता। इसलिए 2018 की सितम्बर में जब साथी ऋचा (लखनऊ-मिनिसोटा) ने यह सुझाव रखा कि क्यों न संगठन के 15-20 सक्रिय साथी मिलकर 2-3 दिन बैठें और अख़बार के केंद्र बिंदु और उसकी सामग्री साथ तय करें, तब सभी को यह विचार जँच गया। ईमेल और फ़ोन वार्ताओं के ज़रिये भी थोड़ा-थोड़ा सोचा गया कि ऐसे कौन से ज़रूरी मसले हैं जिनपर हमने गहरा काम तो किया है पर जिनके बारे में ईमानदारी से आत्म-मंथन करने का मौक़ा नहीं मिला। वहीं से अख़बार के लिए मोटे-मोटे विषयों का चुनाव शुरू हो गया जिनमें शारदा नदी के कटान को लेकर संगठन के अनुभव और खेती-खाना-पोषण पर हो रहे काम ख़ासतौर से उभरे। उसके बाद जब साथी ऋचा (लखनऊ-मिनिसोटा) दिसंबर में सीतापुर आयीं तो 18 साथी तीन दिनों तक साथ बैठे और कठिन मुद्दों की तह में जाते हुए अख़बार में आने वाली सामग्री को लेकर महत्त्वपूर्ण फ़ैसले लिए। इन साथियों में प्रकाश, सुरबाला, रामबेटी, बिटोली, टामा, मनोहर, जमुना, रेखा, रामश्री, राजाराम (मछरेहटा), कौसर, शिवराज, सुनीता (कुतुबनगर), पप्पू, जगन्नाथ, ऋचा (सीतापुर) और रीना शामिल थे। यही नहीं, कटान रोको संघर्ष मोर्चा के एक साथी, शिवबरन, भी हमारे बीच आकर जाति भेद पर हो रही कठिन चर्चा में शरीक़ हुए।

इन चर्चाओं में जिन कहानियों और बातों का लिखना तय हुआ उन्हें हमने कच्चे तौर पर तीसरे दिन छोटे-छोटे समूहों में बँटकर लिखा, फिर साझा किया, फिर दोहराया। उसके बाद शिवराज, सुरबाला, प्रकाश, और ऋचा (सीतापुर) ने आने वाले महीनों में नए बिंदुओं और अनुभवों को जोड़ते हुए लेखन का काम और आगे बढ़ाया। फिर जून माह में ऋचा (लखनऊ-मिनिसोटा) ने इस सारे लेखन को गहराते और आपस में गूंथते हुए, और सारी बातों को एक अख़बार का स्वरुप देते हुए, अमरीका से इस काम को पूरा किया। अब रह गयी साज-सज्जा — सो इस काम को साथी सुधा ने बंगलौर में बैठकर जुलाई में साधा, ताकि साथी तरुण कुमार (मुंबई) इसकी सामग्री के आधार पर साथियों के साथ अगस्त माह में एक नाटक तैयार कर सकें।

ये ब्यौरा यहाँ इसलिए ताकि पाठकों को एहसास हो सके कि संगतिन किसान मज़दूर संगठन के साथियों का संघर्ष सीतापुर के गाँवों के साथ-साथ इस ज़िले से बहुत दूर स्थित शहरों और दुनियाओं में बैठे साथियों को किस क़दर जोड़े हुए है। इसी जुड़ाव का कमाल है कि साथी विशाल जामकर भले ही अभी तक सीतापुर न आये हों, लेकिन हमारे संघर्ष से कुछ ऐसे घुल-मिल गए हैं कि इस अंक के लिए मिनिसोटा से एक ज़बरदस्त लेख हमारे अख़बार के लिए लिख भेजा।

उम्मीद है आपको ‘हमारा सफ़र’ का यह अंक बाँधेगा, और यह भी कि हमारे संगठन के फैलते दायरों और बढ़ती हिम्मतों के साथ-साथ हम सबके क़लम की ताक़त आगे भी ऐसे ही फलती-फूलती रहेगी। तभी हम अपने इर्द-गिर्द फैलती हैवानियत से और मज़बूत होकर लड़ सकेंगे।

अपनी प्रतिक्रिया हमें ज़रूर भेजिएगा।

–‘हमारा सफ़र’ समूह

पूरा अंक पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें: Hamara Safar – July 2019

हमारा सफ़र मई 2015

संपादकीय

आप सभी साथियों को जिन्दाबाद। पिछले कुछ महीनों से देश के किसान कठिन दौर से गुजर रहे हैं। भूमि अधिग्रहण संशोधन अध्यादेश आने के साथ एक ओर जमीन छिन जाने का डर तो दूसरी ओर बेमौसम बारिश की वजह से पकी खड़ी रबी की फसल का बरबाद होना। इन दोनो वजहों से देश में किसानों पर चर्चाएं जरुर शुरु हो गयी हैं। 1894 में अंग्रेजों द्वारा बने कानून पर लम्बे विचार विमर्श एवं सहमति के बाद एक जनवरी 2014 से भूमि अधिग्रहण, पुनर्वासन एवं पुनव्र्यस्थापन में पारदर्शिता अधिनियम 2013 लागू हुआ। एक साल पूरा होते-होते भूमि अधिग्रहण संशोधन अध्यादेश आ गया। देश भर में चले तमाम विरोधों के बीच यह अध्यादेश राज्य सभा में पास नहीं हुआ। बावजूद इसके 3 अप्रैल को लोकसभा में दुबारा पेश किया गया। सवाल उठता है कि किसानों की सहमति के बिना क्या उनकी जमीन ली जानी चाहिए? क्या बहुफसली जमीन के अधिग्रहण की सोच को उचित ठहराया जा सकता है? यह कैसा विकास है? और किसके लिए है?

असमय हुयी बारिश, ओलावृष्टि से तबाह हुयी फसल ने किसानों को कहीं का नहीं छोड़ा है। घरों में अनाज लाने की तैयारी कर रहे किसान साथियों के लिए जमीन पर पड़े गेहूँ के पौधों को जलाने की नौबत आ गयी। अपने सपनों, अपनी उम्मीदों को खतम होते देखना किसानों के लिए आसान नहीं है। साथ खड़ा होने का दावा कर रही सरकारें मुआवजे पर बड़ी-बड़ी बाते कर रही हैं। बेहद धीमी गति से मिलने वाली राहत क्या किसानों को सच में राहत पहुँचा पायेगी? पूरे देश में किसानों के मुआवजे को लेकर हाय तौबा मची हुयी है। राजनैतिक दल एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगा रहे हैं, और प्रशासन मरने वाले किसानों की मौत को बीमारी, पारिवारिक कलह या किसी और कारण से हुयी मौत साबित करने में तुले हुए हैं। अखबारों में, टी.वी. पर खूब बहसे हो रही हैं। इन सब के बीच किसान निराश होकर आत्महत्या कर रहे हैं।

किसानों के इस बर्बादी से उभरी चर्चाओं के बाद क्या सच में उनके भले के लिए कुछ हो पायेगा? हमारे लिए नीतियां बनाने वाले हमारे जन प्रतिनिधि क्या सच में कुछ ऐसी नीतियां बना पायेंगे जिससे किसान साथी इस कदर निराश नहीं होंगे? क्या हमारे नीति नियोक्ता भूमि अधिग्रहण संशोधन पर फिर से विचार कर पायेंगे? क्या फसल नुकसान पर मिलने वाले मुआवजे का वितरण सही से हो पायेगा? बटाई पर खेती करने वाले किसानों को कहाँ से मुआवजा मिलेगा? ठेके पर खेती करने वाले किसान पहले से ही नकद देकर खेत लेते हैं, उनके नुकसान की भरपाई कहाँ से होगी? इस सच से कब तक इन्कार किया जायेगा कि भूमिधर कोई होता है और असल में खेती कोई और करता है? क्या खेतों के मालिक किसान अपने हिस्से के मुआवजे से खेती करने वाले किसानों को कुछ देंगे? अगले साल गेहूँ की बुआई के लिए बीज कहाँ से मिलेगा? दिल्ली-लखनऊ से होने वाली घोषणाओं का क्या जमीन पर क्रियान्वयन हो पायेगा? क्या सच में लेखपाल गाँव में पहुँच पायेंगे? क्या गाँवों में ईमानदारी और संवेदनशीलता के साथ सर्वे हो पायेगा? हमें याद रखना होगा कि यह मुआवजा हमारी फसलों की कीमत नहीं है, यह मात्र मरहम है और मरहम अगर समय पर नहीं मिला तो उसका क्या मतलब रह जाता है?

इन सबके बावजूद हम किसान साथियों को यह भी सोचना होगा कि निराश होना हमारी समस्याओं का हल नहीं है। जान है तो जहान है। हमें सरकारों से लड़कर अपने लिए जीवन के रास्ते बनाने होंगे। साथ ही हमें अपने खेती के तौर-तरीकों पर भी सोचना होगा। जमीन से फसल उगाना एक बात है लेकिन रासायनिक खाद और कीटनाशकों के बलबूते जमीन का बेइंतहा दोहन हमें कहाँ ले जा रहा है?

हम सब जानते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से बदलता पर्यावरण हमारी खेती को प्रभावित कर रहा है। जैसा कि अभी से कहा जा रहा है कि इस साल अलनीनो के प्रभाव की वजह से मानसून प्रभावित होगा। ऐसे में अगर हम धान या गन्ना अधिक मात्रा में लगा रहे हैं तो निश्चित ही सिंचाई अधिक करनी होगी। नतीजा यह होगा कि हमारी लागत और अधिक बढ़ेगी। कुल बात यह है कि हमें खेती के आधुनिक तरीको पर विचार करना ही होगा। कुछ पुराने और कुछ नये तरीको को साथ लेकर कुछ ऐसे रास्ते तलाशने होंगे जो खेती को घाटे का सौदा बनने की ओर नहीं ले जाये।

संगतिन किसान मज़दूर संगठन से जुड़े हम किसान साथी एक दूसरे को हिम्मत देते हुए संघर्ष की इस यात्रा में लगातार चल रहे हैं। संगठन के साथियों में 90 प्रतिशत साथी मज़दूर किसान है। खेती करना किसानों के लिए लगातार घाटे का सौदा बनता जा रहा है। ऐसे में हम क्या करें जिससे मज़दूर किसानों के टूटते जमीनी रिश्तों को बचाया जा सके। अपनी खेती को हम और बेहतर कैसे बनाये? ताकि हमारे जमीन की गुणवत्ता और हमारा स्वास्थ्य दोनो ही बने रहें।

लागत और पोषण को देखते हुए मोटा अनाज हमारे लिए एक विकल्प हो सकता है। लेकिन इसे उगाने की बात के साथ ही यह सवाल सामने आता है कि इसको कूटेगा कौन? अब दही-मट्ठा कहाँ है? बिना दही-मट्ठे के यह कैसे खाया जायेगा? इन सवालों के साथ संगठन के 12 साथी दक्षिण की यात्रा पर गये। हम उस क्षेत्र में गये जहाँ मोटा अनाज उगाया और खाया जा रहा है। हम यह समझ पाये कि मोटा अनाज से खेती की लागत कम होगी और इससे भी अलग-अलग तरह के पकवान बनाकर ठीक उसी तरह खाया जा सकता है जैसे चावल और गेहूँ के अलग-अलग पकवान खाये जाते हैं। हम छोटे मजदूर किसानों को यह करना ही होगा क्योंकि बढ़ती महँगाई एवं अन्य कारणों से हमारे भोजन में पौष्टिकता की लगातार कमी हो रही है। मोटा अनाज उगाने और खाने से इसका बेहतर असर हमारे खेतो से लेकर हमारी सेहत तक होगा।

यह अंक दक्षिण यात्रा पर गये साथियों के अनुभवों और मोटे अनाज पर किये जा रहे प्रयासों को आप तक पहुँचाने की एक कोशिश है। उम्मीद है आपको पसंद आयेगा।

सुरबाला वैश्य

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दक्षिण यात्रा – एक रपट

संगठन की मजबूतीContinue reading “हमारा सफ़र मई 2015”

संगतिन किसान मजदूर संगठन

संगतिन किसान, मजदूर संगठन सीतापुर के गरीब-दलित, पिछडे, नौजवानों और महिलाओं का संगठन है। संगठन के साथी समय-समय पर मिलकर बैठते हैं, मिलकर समस्याओं की पहचान करते हैं। मिलकर फैसला लेते हैं और आगे बढ़ने के रास्ते खोजते हैं। यानि साझी समझ के साथ एक सुर, एक लय, एक आवाज में अपने बेहतर जीवन के लिए कदम बढ़ाते हैं। इस तरह वंचित समूह को अपने हक़, अधिकार के लिए जागरुक करता यह संगठन लगातार आगे बढ़ रहा है।

A decade of activism

Sangtin Kisan Mazdoor Sangathan (SKMS) was formed in 2005-06 with the objective of uniting farmer-labourers, both women andMishrikh-Sep2013 men, in Sitapur district in their struggles for rights, dignity and recognition as stakeholders in the processes of development at all levels. In the decade since, the sangathan has expanded to 7 blocks of the district, with a presence in more than 100 villages.

It has campaigned successfully for employment through MGNREGA (the Indian government’s employment guarantee Act), access to irrigation waters, food security , pensions, health services and more. It has established a reputation as a strong and honest collective that truly represents the rural poor and marginalized communities in Sitapur district.

उठो साथियों

           मदनापुर गांव में प्रधान का भटठा है। सारे मजदूर वहां काम करने जाते हैं। हम लोगों की बातचीत के बाद 11 लोगों ने डिमान्‍ड लगाया पर प्रधान जी ने उनको इतना हडकाया कि वह मजदूर साथी भी काम करने से मुकर गये। एक भी आवेदन नहीं लगा। ऐसा कई गांवों में कई टोली के साथियों ने देखा।

            सवाल मनरेगा में काम करने का नहीं? सवाल यह है कि हम मजदूर कब तक डरते रहेंगे? हम दूसरों की मरजी से कब तक? और क्‍यों अपनी जिन्‍दगी जिएंगे? मेरा ऐसे तमाम मजदूर साथियों से यह कहना है कि हम मेहनतकश मजदूर हैं, जहां फावडा चलायेंगे, जहां हमारा पसीना बहेगा, वहीं से अपनी रोजीरोटी कमा लेंगे। क्‍या हम इंसान नहीं? क्‍या हम इस देश के नागरिक नहीं? साथियों उठो और अपनी ताकत को पहचानों।

 सीताराम भगवानपुर महोली

काम मांगो अभियान – खबरें

किस बिरादरी के हैं?

काम मांगो अभियान के प्रथम चरण में पहला ब्‍लाक की ग्राम पंचायतों में जाने का मौका मिला पहले दिन बेहमा ग्राम पंचायत में शाम के 4 बजे पहुंचे वहां प्रधान का लडका मिला वह लगातार हमारे साथ रहा रास्‍ते में प्रधान के लडके ने पूछाआप लोग किस बिरादरी के हैं? अनुसूचित जाति के हैं, कहते हुए हम आगे बढ गयें लेकिन मन में यह सवाल भी उठा कि आखिर हमारे देश में वह कौन सा दिन होगा जब लोग यह सवाल करना बन्‍द कर देंगे? वह दिन कभी आयेगा भी या नहीं?

जगन्‍नाथ, अल्‍लीपुर पिसावां

”पी” का कमाल
हम परसेंडी ब्‍लाक के एक गांव में गयें। वहां प्रधान जी ने बहुत अच्‍छे से बात की। हमारे रहने और खाने की अच्‍छी व्‍यवस्‍था की लेकिन जब आवेदन लगाने का काम शुरू किया गया प्रधान का एक आदमी दारू पीकर वहां हंगामा करने लगा। ब्‍लाक पर बात हुयी। बहुत मुश्किल से मारपीट होने से बचा। यहां से हम दूसरे ग्राम पंचायत में गयें। वहां बहुत अच्‍छा माहौल था। एक बुजुर्ग माताजी ने हम लोगों का खूब सहयोग किया। मुझे तो लगता है कि काम मांगो अभियान में वहीं दिक्‍कते आयीं या विवाद हुआ जहां प्रधान या रोजगार सेवक चाहते थे कि कम से कम डिमान्‍ड लगे।

रामसुधाकर जाजपुर  खैराबाद

कौन सी जाति?

काम मांगो अभियान के दौरान हम एक ऐसे गांव में पहुंचे जहां प्रधान ठाकुर बिरादरी के थे। पहुंचने के साथ ही प्रधान जी ने जाति पूछी। और फिर पानी चाय प्रधान जी के घर से आया लेकिन प्‍लास्टिक के ग्‍लास में। हम लागों ने चाय पी ली और तय किया कि प्रधान के घर नहीं रूकेंगे। हम दूसरे मजरे में गये और मजदूर साथियों के घर में रहें।

 चन्‍द्रभाल, फखरपुर पिसावां

नीयत ही नहीं

रेउसा ब्‍लाक के थानगांव पहुंच कर मैंने रोजगार सेवक को फोन किया। थोडी देर में प्रधान और रोजगार सेवक दोनो आ गयें। रोजगार सेवक ने कहा तुम किस चक्‍कर में पडें हो? हम तुमको कुछ समझ देंगे। लेकिन हम उनकी इस बात को नहीं समझना चाहते थे।

हमारा रूख देखकर वह नाराज होकर बोला- ठीक है जाओ बनाओ डिमान्‍ड। उसने एक लडके को हमारे साथ कर दिया और बोला- इनके साथ जाओ डिमान्‍ड पर बना देना, बस रिसीविंग हो जाऐगी। धन्‍य हैं ये लोग।

विनोद कुमार  विश्‍वनाथपुरमिश्रिख